Monday 29 April 2019

कभी घड़ी पर निगाह करती,
कभी फोन वो दो चार करती,
है बेकरारी की इंतहा जब,
वो मेड का इंतजार करती।

है बिखरा घर का हर एक कोना,
है जूठे चम्मच थाली भगोना,
झलक रहा है चेहरे पे उसके,
वो चाय को किस कदर तरसती,
है बेकरारी की इंतहा जब,
वो मेड का इंतजार करती।

पति और बच्चों पे चिल्ला रही है,
छोटी सी बातों पे झल्ला रही है,
डरे हुए है खामोश ऐसे,
कर्फ्यू मे जनता जैसे हो डरती,
है बेकरारी की इंतहा जब,
वो मेड का इंतजार करती।

बदल गया सब जो घर वो आई,
मुस्कान संग अपने बीवी की लाई,
नहीं मेड है वो तो कोई परी है,
बीवी के जो सारे कष्टों को हरती,
है बेकरारी की इंतहा जब,
वो मेड का इंतजार करती।
उसे मैं आज भी मुंह बांध के आवाज देता हूंँ,
सुनाई भी नहीं देता उसे, मैं कह भी लेता हूँ।

हैं कुछ तकलीफ जिनकी जिंदगी को भी जरूरत है,
वो दरियाँ डूबकर जिनमें मैं जिंदा रह भी लेता हूंँ।

हर एक दर्द का मरहम नहीं मिलता बाजारों में,
कभी खुद चोट देकर खुद मजे से सह भी भी लेता हूंँ।

वह मेरा टाइटेनिक था नहीं पहुंचा किनारों पर,
मगर नींदों में में थोड़ा साथ उसके बह भी लेता हूंँ।

--कृपाल
हिन्दू

हम प्रेम शान्ति के संवाहक, हम शौर्य शक्ति के सिंधु है,
स्वधर्म हमारा स्वाभिमान, है गर्व हमें हम हिन्दू है।

हम मर्यादा पुरूषोत्तम भी, हम लीलाधर गोपाल भी हैं,
वामन अवतारी सूक्ष्म भी हम, नरसिंह जैसे विकराल भी हैं।
हम आर्यभट्ट चाणक्य चरक, नानक गौतम हम महावीर
हम तुलसी सूर कबीर भी है, हम हैं दधीचि से दानवीर,
हम पुत्र श्रवण आज्ञाकारी, हम भरत लक्ष्मण बंधु हैं
स्वधर्म हमारा स्वाभिमान, है गर्व हमें हम हिन्दू है।

आतिथ्य हमारी परम्परा, अतिथि हम देव समझते है
हम प्राण गंवाकर भी अपने वचनों की रक्षा करते है,
आचार्य हमारे वेद ग्रंथ गीता मानस हम पढ़ते हैं
ज्योतिष खगोल साहित्य गणित हर क्षेत्र में कीर्ति गढ़ते हैं
हर ज्ञान कला विज्ञान विधा के मूल मे स्थित बिंदु हैं
स्वधर्म हमारा स्वाभिमान, है गर्व हमें हम हिन्दू है।

भू-नभ जल वायु अग्नि की हम, पूजा संरक्षण करते है,
ये देह हमारी पंचतत्व, इनको ही अर्पण करते है
स्थान उचित सम्मान उचित, समभाव धर्म सब रखते है
निजधर्म की रक्षा ध्येय मगर, अतिक्रमण कभी न करते है
हम दया क्षमा के परिचायक, संवेदनशील सहिष्णु है
स्वधर्म हमारा स्वाभिमान, है गर्व हमें हम हिन्दू है।

Thursday 18 April 2019

वो मेड का इंतजार करती..

कभी घड़ी पर निगाह करती,
कभी फोन वो दो चार करती,
है बेकरारी की इंतहा जब,
वो मेड का इंतजार करती।

है बिखरा घर का हर एक कोना,
है जूठे चम्मच थाली भगोना,
झलक रहा है चेहरे पे उसके,
वो चाय को किस कदर तरसती,
है बेकरारी की इंतहा जब,
वो मेड का इंतजार करती।

पति और बच्चों पे चिल्ला रही है,
छोटी सी बातों पे झल्ला रही है,
डरे हुए है खामोश ऐसे,
कर्फ्यू मे जनता जैसे हो डरती,
है बेकरारी की इंतहा जब,
वो मेड का इंतजार करती।

बदल गया सब जो घर वो आई,
मुस्कान संग अपने बीवी की लाई,
नहीं मेड है वो तो कोई परी है,
बीवी के जो सारे कष्टों को हरती,
है बेकरारी की इंतहा जब,
वो मेड का इंतजार करती।

Thursday 4 April 2019

सफर

छोड़कर घर सफर में जो निकले सभी,
जीते हैं पर नहीं जिंदगी को जिया,
खुद को किश्तों में हम यूँ दफन कर रहे,
खा रहा हो अंधेरा ज्यों जलता दिया ।

रोज बढ़ते हैं हम खुद को खोते हुए,
ख्वाब आते नहीं हम को सोते हुए,
रोज कोयले के जैसे जलाते हैं हम,
जिंदगी ने जो चंदन था हमको दिया ।

नाम दुनियाँ को अपना बताते रहे,
अपनी दुनियाँ मगर भूल जाते रहे,
जिनके होने से तस्वीर में जान थी,
उनका तस्वीर में साथ क्यों ना दिया ।

जीतने की हवस मैं रहे हारते,
दौड़ने को सफलता रहे मानते,
भेड़ की भीड़ मे भेड़ ही रह गए,
खुद नहीं खुद को बनने का मौका दिया।


--कृपाल😎