छोड़कर घर सफर में जो निकले सभी,
जीते हैं पर नहीं जिंदगी को जिया,
खुद को किश्तों में हम यूँ दफन कर रहे,
खा रहा हो अंधेरा ज्यों जलता दिया ।
रोज बढ़ते हैं हम खुद को खोते हुए,
ख्वाब आते नहीं हम को सोते हुए,
रोज कोयले के जैसे जलाते हैं हम,
जिंदगी ने जो चंदन था हमको दिया ।
नाम दुनियाँ को अपना बताते रहे,
अपनी दुनियाँ मगर भूल जाते रहे,
जिनके होने से तस्वीर में जान थी,
उनका तस्वीर में साथ क्यों ना दिया ।
जीतने की हवस मैं रहे हारते,
दौड़ने को सफलता रहे मानते,
भेड़ की भीड़ मे भेड़ ही रह गए,
खुद नहीं खुद को बनने का मौका दिया।
--कृपाल😎
जीते हैं पर नहीं जिंदगी को जिया,
खुद को किश्तों में हम यूँ दफन कर रहे,
खा रहा हो अंधेरा ज्यों जलता दिया ।
रोज बढ़ते हैं हम खुद को खोते हुए,
ख्वाब आते नहीं हम को सोते हुए,
रोज कोयले के जैसे जलाते हैं हम,
जिंदगी ने जो चंदन था हमको दिया ।
नाम दुनियाँ को अपना बताते रहे,
अपनी दुनियाँ मगर भूल जाते रहे,
जिनके होने से तस्वीर में जान थी,
उनका तस्वीर में साथ क्यों ना दिया ।
जीतने की हवस मैं रहे हारते,
दौड़ने को सफलता रहे मानते,
भेड़ की भीड़ मे भेड़ ही रह गए,
खुद नहीं खुद को बनने का मौका दिया।
--कृपाल😎
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