वो हनुमान या
कृष्ण नहीं, जो
पर्वत मूल उठाया
था,
वो था साधारण
निर्बल पर, पर्वत
को धूल चटाया
था ।
वो नहीं शहशांह
था प्रेमी, जो
उँचा महल बनाया
था,
वो था निर्धन
प्रेमी पागल, एक
उँचा शैल गिराया
था ।।
जिसनें पत्नी को
छीना था, कुछ दूरी थी
कुछ उँचाई,
उस व्यथित हृदय
ने ठान लिया,
अब दूर करु जग कठिनाई
।
ज्यों सतीदाह पे
क्रोधी शिव ने, तीनों लोक
हिलाया था,
उस मानस ने
पत्नी मृत्यु का,
कारण मूल मिटाया
था।। It
कितनी मुश्किल कितना अभाव,
कितना उपहास सहा
होगा,
कितना स्थिर कितना
विचलित, वो मानव हृदय रहा
होगा ।
हर मौसम हर
बिमारी में, वो पर्वत
जैसा डटा रहा,
भूधर को भूतल
करने में , बाईस
वर्षो तक जुटा रहा ।
न साधन थे
न साथी थे,
बस छैनी और हथौड़ा था,
बाईस वर्षों की
चोटों ने, पर्वत
का सीना तोड़ा
था ।
सालों की छोटी
खटखट ने, सदियों
का शूल मिटाया
था,
मानव क्षमता का
नया सूर्य, एक
मानव ने दिखलाया
था ।।
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